प्रिय जबलपुर
प्रिय जबलपुर,
जब मैं तुमसे मिली, तब तुम्हें जानती भी नहीं थी,
मैंने तुम्हें खुद नहीं चुना, तुम मेरे माँ-पापा का सपना थे मेरे लिए।
एक अच्छा स्कूल, एक नई ज़िन्दगी, एक उज्ज्वल भविष्य।
तुम मुझे भाए नहीं, क्योंकि शायद मैं चार साल की बच्ची थी,
जो अपने माँ-पापा को पीछे छोड़ तुमसे मिली थी।
कई दिन बीते, फिर माँ-पापा भी मुझे मिल गए।
और फिर देखते-देखते कब तुम मेरा घर बन गए, पता नहीं चला।
तुमने मेरे बचपन की मस्ती देखी है,
वयस्कता का विद्रोह देखा है,
तुमने नसमझी देखी है, और समझदार बनाया है।
तुम्हारी गोद में सारे सपने देखे,
जिन्हे तुमने सिचा, कभी सख्ती से तो कभी नर्मी से।
तुमने बारिश की पहली बूंद का कोमल एहसास दिलाया,
और कभी तेज हवा के साथ पानी के थपेड़े भी मारे ।
सर्दियों में अंगीठी की गर्मी का सुकून दिया,
और सुबह की जमा देने वाली सर्दियों भी दिखाई ।
आम के रस से भरी गर्मियों के मज़े दिखाए,
और प्रत्येक वर्ष कूड़-फांद-उधम के नए पैमाने बनाए।
तुम्हारे साथ दीवाली की मिठाइयाँ खाई, और बीमारी में बेस्वाद खिचड़ी भी।
तुमने गुरु दिए, दोस्त दिए। जीवन के सबसे अनमोल तोहफे दिए।
तुमने मेरी खुशियाँ देखी हैं, तुमने मेरे ग़म देखे हैं,
तुमने कामयाबी में सिराहा है, नाकामियों में संभाला हैं,
तुमने मेरा अकेलापन देखा है, मेरे आँसूं देखे हैं।
तुमने मेरी मेहनत देखी है, मैं और तरक्की के गावह बने हो,
तुमने घर का प्यार दिया, लाड़ दिया।
दुनिया में जीने की सीख दी, समझ दी।
पूरी दुनिया की चकाचौंध देखने के बाद,
अपने घर लौटकर आने का सुकून दिया।
तुम पहले हो जिसने समझा है,
तुम पहले हो जिसने सिखाया है,
तुम पहले हो जिसने सपने दिए,
तुम पहले हो जिसने साहस दिया,
तुमने मुझे संभाला, तुमने मुझे बनाया,
तुम मेरा सुकून हो, तुम मेरा गुरूर हो,
तुम मेरा घर हो!
तुम घर हो,
तुम घर थे,
और हमेशा रहोगे।
तुम्हारी
स्वर्णिका
15-11-2023
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